वह एक ख़ामोश
कज़रारी शाम थी जब किसी ने पीछे से कन्धे पर हाथ रखकर खनकती आवाज़ में पूछा था
"मेरे साथ चलोगे बाबू!" और उसे बिना देखे मेरे मुँह से अनायास निकला था
"हाँ चलूँगा" फिर मैं चल पड़ा कैसे? क्यों? कहाँ? कुछ पता नहीं, उसका भी पता नहीं... अब तक चलता जा रहा हूँ इस उम्मीद में
कि रात के दो बजेंगे और वह पीछे से कंधा झकझोरकर कहेगी- "अब बस बहुत हो चुका
आइए हो ही जायँ वारे-न्यारे जन्मान्तर के"।
जब रात का दो बजेगा चारों तरफ़ सन्नाटा होगा हवा साँय साँय करेगी
चमगादड़ों की चिकचिक और गीदड़ों के हुआँ हुआँ से वातावरण भयानकता के चरम पर पहुँच
चुका होगा तब सम्पर्क करूंगा आप सब आना ज़ुरूर यहां जश्न होगा, मदिरा छलकेगी ठहाके लगेंगे नृत्य होगा... ज़िन्दगी का असली लुत्फ़ क्या आप नहीं लेना चाहते?
उसे मैं पकड़ना तो चाहा था पर वह मेरे हाथ से मछली के मानिन्द
फिसलकर तीन गज़ के फ़ासले पर जा खड़ी हुई उस समय भी मेरे सामने उसकी पीठ ही थी और वह
खिलखिलाती हुई कह रही थी- "वक़्त को पकड़ना चाहते हो बाबू! आजतक कोई नहीं पकड़
पाया सब निराश ही हुए हैं" पर मैं निराश नहीं हूँ मैं उसे पकड़ूँगा ज़ुरूर
पकड़ूँगा ऐसा कहकर वह मुझे हताश नहीं कर सकती मैं दिखा दूँगा कि मैं सब नहीं।
वह जा चुकी थी मैं भी जा चुका था पर आज वह फिर आएगी क्योंकि आज मैं
फिर आया हूँ बस दो बजे का समय आ जाय जो अभी तक न आया... वह आएगा उसे आना ही होगा।
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पकड़ लेना और बांध भी देना ।
ReplyDeleteहाहाहा नमस्ते
Deleteपता नहीं--परिकल्पना या कि---?
ReplyDeleteनमस्ते
DeleteI feel very grateful that I read this. It is very helpful and very informative and I really learned a lot from it.
ReplyDeleteHey thank you!!! I was seeking for the particular information for long time. Good Luck ?
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